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अ॒नच्छ॑ये तु॒रगा॑तु जी॒वमेज॑द्ध्रु॒वं मध्य॒ आ प॒स्त्या॑नाम्। जी॒वो मृ॒तस्य॑ चरति स्व॒धाभि॒रम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anac chaye turagātu jīvam ejad dhruvam madhya ā pastyānām | jīvo mṛtasya carati svadhābhir amartyo martyenā sayoniḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒नत्। श॒ये॒। तु॒रऽगा॑तु। जी॒वम्। एज॑त्। ध्रु॒वम्। मध्ये॑। आ। प॒स्त्या॑नाम्। जी॒वः। मृ॒तस्य॑। च॒र॒ति॒। स्व॒धाभिः॑। अम॑र्त्यः। मर्त्ये॑न। सऽयो॑निः ॥ १.१६४.३०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:30 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:19» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:30


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो ब्रह्म (तुरगातु) शीघ्र गमन को (अनत्) पुष्ट करता हुआ (जीवम्) जीव को (एजत्) कंपाता और (पस्त्यानाम्) घरों के अर्थात् जीवों के शरीर के (मध्ये) बीच (ध्रुवम्) निश्चल होता हुआ (शये) सोता है। जहाँ (अमर्त्यः) अनादित्व से मृत्युधर्मरहित (जीवः) जीव (स्वधाभिः) अन्नादि और (मर्त्येन) मरणधर्मा शरीर के साथ (सयोनिः) एकस्थानी होता हुआ (मृतस्य) मरण स्वभाववाले जगत् के बीच (आ, चरति) आचरण करता है, उस ब्रह्म में सब जगत् वसता है, यह जानना चाहिये ॥ ३० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में रूपकालङ्कार है। जो चलते हुए पदार्थों में अचल, अनित्य पदार्थों में नित्य और व्याप्य पदार्थों में व्यापक परमेश्वर है, उसकी व्याप्ति के विना सूक्ष्म से सूक्ष्म भी वस्तु नहीं है, इससे सब जीवों को जो यह अन्तर्यामिरूप से स्थित हो रहा है, वह नित्य उपासना करने योग्य है ॥ ३० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरीश्वरविषयमाह।

अन्वय:

यद्ब्रह्म तुरगात्वनज्जीवमेजत्पस्त्यानां मध्ये ध्रुवं सच्छये यत्रामर्त्यो जीवः स्वधाभिर्मर्त्येन सह सयोनिस्सन्मृतस्य जगतो मध्य आचरति तत्र सर्वं जगद्वसतीति वेद्यम् ॥ ३० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अनत्) प्राणत् (शये) शेते। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेष्विति तलोपः। (तुरगातु) सद्योगमनम् (जीवम्) (एजत्) कंपयन् (ध्रुवम्) (मध्ये) (आ) (पस्त्यानाम्) गृहाणां जीवशरीराणां वा (जीवः) (मृतस्य) मरणस्वभावस्य (चरति) गच्छति (स्वधाभिः) अन्नादिभिः (अमर्त्यः) अनादित्त्वान्मृत्युधर्मरहितः (मर्त्येन) मरणधर्मेण शरीरेण (सयोनिः) समानस्थानः ॥ ३० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र रूपकालङ्कारः। यश्चलत्स्वचलोऽनित्येषु नित्यो व्याप्येषु व्यापकः परमेश्वरोऽस्ति। नहि तद्व्याप्त्या विनाऽतिसूक्ष्ममपि वस्त्वस्ति तस्मात्सर्वैर्जीवैरयमन्तर्यामिरूपेण स्थितो नित्यमुपासनीयः ॥ ३० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात रूपकालंकार आहे. जो चल पदार्थात अचल, अनित्य पदार्थात नित्य व व्याप्य पदार्थात व्यापक परमेश्वर आहे, त्याच्या व्याप्तीशिवाय सूक्ष्मातील सूक्ष्म वस्तूही नाही. सर्व जीवात अन्तर्यामी रूपाने जो स्थित आहे. तो नित्य उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ ३० ॥